Thursday, March 24, 2011

अब ऐड देखने में भी मजा है

एक वक़्त था जब टीवी पर प्रोग्राम के बीच ऐड आता था तो उसे देख कर मन उब जाया करता था. कभी कभी गुस्सा भी आता था. लेकिन अब वो बात नहीं रही. अब मजा आता है ऐड देखने में. पहले उबन का कारण ये था की एक तो एक ही ऐड महीनों चलता रहता था, नयापन था ही नहीं. दूसरे उसमें कुछ क्रियेटिविटी नहीं थी. लेकिन अब वो बात नहीं रही. अब ऐड में क्रियेटिविटी है. नयापन है. अब के ऐड ऐसे बनते हैं की उसमें उत्सुकता बनी रहती है. जब तक दर्शक उसका आनंद उठाते हैं, तब तक नये थीम पर दूसरा ऐड बन जाता है. आज के ऐड में प्रोडक्ट की जानकारी या विशेषता बताने के लिए वस्तुविशेष पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं होता, बल्कि उसके साथ दर्शकों के मनोरंजन का भी ख्याल किया जाता है. दरअसल आज का दर्शक क्या चाहता है ये कंपनियां जान चुकी हैं. समय के साथ मार्केटिंग पॉलिसी बदली और दर्शकों को अपने प्रोडक्ट के प्रति लगाव बनाये रखने के लिए कंपनियों ने नए नए विकल्प निकल लिए. अब प्रोडक्ट की जानकारी ही नहीं दे जाती बल्कि दर्शकों का मनोरंजन भी किया जाता हैं. अब ऐड में भी मजा आता है. याद करिए वो पेंशन का वो ऐड जिसमें एक बुजुर्ग पिता अपने करीबन साठ साल के बेटे को ऐसे डांट रहा था जैसे की एक पिता अपने जवान बेटे को डांटता है.यही नहीं जूजू वाला ऐड याद है न और वो ३जी वाला ऐड जिसमें एक खटारा गाड़ी से चल रहा युवक  के बगल से एक तेज रफ़्तार गाड़ी निकलती है. यही नहीं कई ऐड तो ऐसे बने है जिसमें आपको हंसी तो नहीं आएगी पर उसे देखने की उत्सुकता बनी रहेगी, जैसे लावा मोबाइल का एड जिसमें चेंज न होने पर काउंटर पर बैठी लड़की लड़के को कंडोम देती है. थमसप  का ऐड, एलआईसी का वो ऐड जिसमे पांच रुपये के लिए दो दोस्त लड़ते हैं. sprite का वो ऐड जिसमे गर्लफ्रेंड के साथ बैठे लड़के को दूसरी लड़की को देखने के तरीके बताये गए हैं. ऐसी बहुत लम्बी लिस्ट है एड की जिसे देखने में मजा आता है.कई बार हम चैनेल बदल कर उस एड को देखते है.समय के साथ ऐड का टेस्ट भी बदल गया है.

Saturday, March 12, 2011

शिया पर्सनल law बोर्ड की सार्थक पहल

कन्या bhrud हत्या रोकने के लिए शिया पर्सनल law बोर्ड ने helpline की शुरुआत करने जा रही है.यही नहीं ऐसा कुकृत्य करने वाले मुस्लिम परिवार को सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना होगा. पीड़ित महिला को बस एक फ़ोन करने की जरुरत होगी.लखनऊ स्थित helpline में फोन आते ही सारा काम बोर्ड करेगा. पहले बोर्ड समझाने की कोशिश करेगा न मानने पर सामाजिक बहिष्कार का सहारा लिया जायेगा. ये पहल स्वागत योग्य है.इससे कन्या bhrud हत्या में तेजी से कमी आएगी. ऐसा ही काम हिन्दू संगठनों को भी करना चाहिए. बोर्ड ने तय किया है की वो ऐसे परिवार से ब्याह के लिए न तो लड़की लेगा न देगा. कन्या bhrud हत्या भारत के विकास में रूकावट का एक मुख्य कारण है.जब तक देश में लिंगानुपात सही नहीं होगा तब तक विकास की गति धीमी ही रहेगी. एक देश का विकास घर से शुरू होता है. यदि घर की महिला ही जागरूक नहीं होगी तो वो परिवार को कैसे प्रगतिशील बना पायेगी. हमारा कल हमारे बच्चे हैं.  उनका पहला स्कूल उनका घर होता है, जहाँ उनकी टीचर उनकी माँ होती है. इसलिए जरुरी है की इस कुकृत्य को रोकने के लिए महिलाओं को भी आगे आना होगा. एक सार्थक सोच से ही देश की तस्वीर बदल सकती है. बस जरुरत है कुछ ऐसे ही संगठनों के आगे आने की और ठोस कदम उठाने की जैसा की शिया पर्सनल law बोर्ड ने उठाने की सोची है.

Wednesday, March 9, 2011

जानवरों के काटने पर मिल सकती है क्षतिपूर्ति

अब खुले आम घूम रहे जानवरों से डरने की जरूरत नहीं है.यदि आप इनका शिकार हो भी गए तो आपको इलाज के लिए अपने पास से रुपये खर्च करने की जरूरत नहीं होगी, क्यूँकी अब इनके काटने पर आपको मुआवजा मिल सकता है.बशर्ते आप इसे पाने के लिए कोर्ट दौड़ाने की हिम्मत रखते हों.बलिया के सत्र न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान ये ऐतिहसिक फेसला सुनाया है.बलिया निवासी अधिवक्ता को एक उत्पती बन्दर ने उस समय कट लिया जब वो कोर्ट की सुनवाई को लाई फाइल को उससे छुड़ाने का प्रयास कर रहे थे.सत्र न्यायालय ने मामले को गंभीरता से लेते हुए अधिवक्ता को तीस दिन के भीतर साढ़े चार हजार रुपये देने का आदेश दिया है.

Tuesday, March 8, 2011

जिद करो और खुद को बदलो

स्थान : डाफी, वाराणसी 
समय: सुबह का ११ 
दिन : मंगलवार 
सैकड़ों  लड़कियां  रैली में नारे लगा रहीं थी. हाथों में तख्तियां थी. रैली बीएचयू से होते हुए कई क्षेत्रों में गई. लोगों का ध्यान तो गया, लेकिन उत्सुकतावश. वहीँ पर एक मजदूर महिला भी मिट्टी खोद रही थी, थोड़ी सांस लेने और उत्सुकतावश बरबस ही उस महिला का ध्यान उस ओर चल गया. कुछ देर तो उसने देखा, फिर अपनी दिहाड़ी में लग गई. ऐसे दृश्य लगभग रोज उसके सामने आते हैं, जब कोई न कोई रैली हाथों में झंडा बैनर लिए नारे लगाते आगे बढ़ जाती है. शायद येही रहा होगा जो उसने ये जानने का प्रयास भी नहीं किया की आखिर ये क्या था और क्यों? दरअसल यही महिला दिवस  की सच्चाई है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की भारत में वास्तविकता क्या है? ये जानना हो तो आम महिलाओं से पूछिए. यही नहीं पुलिस थानों व कचहरी में लंबित मामले चुगली करते मिल जाएँगे. महिलाओं को कदम कदम पर आज़ादी खोनी पड़ती है. आर्थिक-सामाजिक समानता का ढिंढोरा ही पीटा जाता है. महिला दिवस के प्रति अगर महिलाएं सक्रिय होना भी चाहें तो नहीं हो सकतीं. सामाजिक संस्थाएं अपने प्रचार के लिए गोष्ठियां कराती हैं. सम्मान समारोह आयोजित होते हैं, तो स्पोंसर ढूंढें जाते हैं, ताकि अपनी जेब भरी जा सके. अखबारों में आर्टिकल लिखे जाते हैं, चैनल पे बहस मुबाहिसा होता है, लेकिन सब प्रचार पाने और टीआरपी बढ़ाने के लिए. सवाल ये है की इन सब से कोई फर्क पड़ता भी है? आज भी एक मजदूर महिला अपने ही बराबर काम करने वाले मजदूर पुरुष के बराबर मेहनताना पाने को तरसती है, तो निजी संस्थाओं में महिला को फिलर के रूप में या कस्टमर को आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. महिलाओं को पैसिव वे में देखने की मानसिकता नहीं बदल रही है. सामाजिक रूप से भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. कोई महिला अपना दुखड़ा लेकर थाने नहीं जाना चाहती. घरेलू हिंसा का शिकार हर दस में से पांच महिला है. कितने पुरुष हैं जो महिलाओं का सम्मान करते हैं? या उनकी ख़ुशी के लिए कुछ अलग करते हैं की आज का दिन उनका है. अगर अखबारों व टीवी के माध्यम से पता न लगे तो ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं होगा की आज महिला दिवस है.यहाँ तक कि महिलाओं को भी. ये कहा जाता है कि मजदूर वर्ग की महिला पढ़ी लिखी नहीं है इसलिए वो अपने अधिकारों से वंचित है लेकिन पढ़ी लिखी महिला भी अपने अधिकारों का कितना लाभ ले पाती है? वजह कई हैं. पहली वजह तो उसके सिर पर छत और पेट की आग बुझाने कि जिद्दोजहद है और दूसरा कि कानून का सहारा लेकर वह जगहंसाई का मुद्दा बन जाएगी. लचर कानून तो उसकी मदद नहीं कर पाएगा अलबत्ता उसको और प्रताड़ित होना पड़ेगा. समाज में आवाज उठाने वाली महिला को हेय दृष्टि से देखा जाता है और लांछन लगाना तो कितना आसान है. पुरुषों के खिलाफ आवाज उठाने का मतलब ये है कि कदम कदम पर नए दुश्मन पैदा करना. पुरुष लॉबी को एक होते देर नहीं लगती.
ऐसे में महिलाओं को खुद ही मजबूत होने के सिवा कोई चारा नहीं है, है क्या? खुद ही किरण बेदी बनना होगा, खुद ही किरण मजूमदार शा.

Monday, March 7, 2011

mandir nirmad kr rukavat ka trika hua aam

लोगो में भगवान के प्रति कितनी आस्था  है ये बनारस की सड़को पर आसानी से देखा जा सकता है.अगर रास्ता आम नहीं बनाना तो वहाँ मन्दिर बना दिया जाता है. हर गली कुचे में छोटे से chtota madir सिर्फ इस कारण बना है की प्रशाशन उस unotherised जमीं को कब्जाने का प्रयास नहीं कर पाए. यही नहीं सड़क के बीच भी इस तरह के मंदिर बना दिए गए हैं.इन मंदिरों में shayed ही कोई पूजा करता है.भगवान  के नाम पर अब तक तो नेता ही राजनीती करते थे अब तो आम आदमी भी भगवन को अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग कर रहा है.