Tuesday, March 8, 2011

जिद करो और खुद को बदलो

स्थान : डाफी, वाराणसी 
समय: सुबह का ११ 
दिन : मंगलवार 
सैकड़ों  लड़कियां  रैली में नारे लगा रहीं थी. हाथों में तख्तियां थी. रैली बीएचयू से होते हुए कई क्षेत्रों में गई. लोगों का ध्यान तो गया, लेकिन उत्सुकतावश. वहीँ पर एक मजदूर महिला भी मिट्टी खोद रही थी, थोड़ी सांस लेने और उत्सुकतावश बरबस ही उस महिला का ध्यान उस ओर चल गया. कुछ देर तो उसने देखा, फिर अपनी दिहाड़ी में लग गई. ऐसे दृश्य लगभग रोज उसके सामने आते हैं, जब कोई न कोई रैली हाथों में झंडा बैनर लिए नारे लगाते आगे बढ़ जाती है. शायद येही रहा होगा जो उसने ये जानने का प्रयास भी नहीं किया की आखिर ये क्या था और क्यों? दरअसल यही महिला दिवस  की सच्चाई है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की भारत में वास्तविकता क्या है? ये जानना हो तो आम महिलाओं से पूछिए. यही नहीं पुलिस थानों व कचहरी में लंबित मामले चुगली करते मिल जाएँगे. महिलाओं को कदम कदम पर आज़ादी खोनी पड़ती है. आर्थिक-सामाजिक समानता का ढिंढोरा ही पीटा जाता है. महिला दिवस के प्रति अगर महिलाएं सक्रिय होना भी चाहें तो नहीं हो सकतीं. सामाजिक संस्थाएं अपने प्रचार के लिए गोष्ठियां कराती हैं. सम्मान समारोह आयोजित होते हैं, तो स्पोंसर ढूंढें जाते हैं, ताकि अपनी जेब भरी जा सके. अखबारों में आर्टिकल लिखे जाते हैं, चैनल पे बहस मुबाहिसा होता है, लेकिन सब प्रचार पाने और टीआरपी बढ़ाने के लिए. सवाल ये है की इन सब से कोई फर्क पड़ता भी है? आज भी एक मजदूर महिला अपने ही बराबर काम करने वाले मजदूर पुरुष के बराबर मेहनताना पाने को तरसती है, तो निजी संस्थाओं में महिला को फिलर के रूप में या कस्टमर को आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. महिलाओं को पैसिव वे में देखने की मानसिकता नहीं बदल रही है. सामाजिक रूप से भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. कोई महिला अपना दुखड़ा लेकर थाने नहीं जाना चाहती. घरेलू हिंसा का शिकार हर दस में से पांच महिला है. कितने पुरुष हैं जो महिलाओं का सम्मान करते हैं? या उनकी ख़ुशी के लिए कुछ अलग करते हैं की आज का दिन उनका है. अगर अखबारों व टीवी के माध्यम से पता न लगे तो ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं होगा की आज महिला दिवस है.यहाँ तक कि महिलाओं को भी. ये कहा जाता है कि मजदूर वर्ग की महिला पढ़ी लिखी नहीं है इसलिए वो अपने अधिकारों से वंचित है लेकिन पढ़ी लिखी महिला भी अपने अधिकारों का कितना लाभ ले पाती है? वजह कई हैं. पहली वजह तो उसके सिर पर छत और पेट की आग बुझाने कि जिद्दोजहद है और दूसरा कि कानून का सहारा लेकर वह जगहंसाई का मुद्दा बन जाएगी. लचर कानून तो उसकी मदद नहीं कर पाएगा अलबत्ता उसको और प्रताड़ित होना पड़ेगा. समाज में आवाज उठाने वाली महिला को हेय दृष्टि से देखा जाता है और लांछन लगाना तो कितना आसान है. पुरुषों के खिलाफ आवाज उठाने का मतलब ये है कि कदम कदम पर नए दुश्मन पैदा करना. पुरुष लॉबी को एक होते देर नहीं लगती.
ऐसे में महिलाओं को खुद ही मजबूत होने के सिवा कोई चारा नहीं है, है क्या? खुद ही किरण बेदी बनना होगा, खुद ही किरण मजूमदार शा.

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